विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए

क्या विदेशी मुद्रा में पैसे खर्च होते हैं

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और कितना रुलाएगा डॉलर?

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बहुत खामोशी है उदारीकरण के पैरोकारों और रुपए के अवमूल्यन में अनेक गुण देखने वाले अर्थशास्त्रियों में। डॉलर जब 79.37 रुपए का हो गया और रिजर्व बैंक की सारी कवायद के बाद भी अगले दिन मात्र चार पैसे सुधर पाया तो कोई भी ऐसा अर्थशास्त्री सामने नहीं आया जो रुपए के अवमूल्यन को निर्यात बढाने और जीडीपी बढने में योगदान का तर्क दे रहा था। डॉलर को चालीस रुपए पर लाने की बात करने वाले तो अब इस सवाल को छूने से भी बचने लगे हैं।

उधर बाजार के जानकार हाल फिलहाल डॉलर के 82 रुपए तक पहुंचने की भविष्यवाणी करने लगे हैं। अभी करोना के समय से ही डॉलर दो रुपए से ज्यादा महंगा हुआ है जबकि इस बीच खुद अमेरिका परेशानी में रहा है और उसके यहां भी डॉलर के भविष्य को लेकर तरह-तरह की चर्चा चलती रही है। अब यह कहने में हर्ज नहीं है कि किसी भी देश की मुद्रा की कीमत वहां की अर्थव्यवस्था की स्थिति और आर्थिक प्रतिष्ठा को बताती है और इस बुनियादी पैमाने पर हमारी स्थिति दिन ब दिन कमजोर होती दिखती है।

यह खबर ज्यादा प्रचारित नहीं हुई है कि बीते कुछ समय से हमारा रिजर्व बैंक डॉलर की बढत को थामने के लिए अपनी अंटी से काफी रकम खर्च कर रहा है। प्रसिद्ध वित्तीय संस्था बर्कले की रिपोर्ट है कि पिछले पांच महीने में रिजर्व बैंक ने डॉलर को थामने के लिए अपने पास से 41 अरब डॉलर बाजार में उतारे हैं। सौभाग्य से अभी तक देश के विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति अच्छी है।

बर्कले का अनुमान है कि रिजर्व बैंक ने वायदा और हाजिर, दोनों बाजारों में रेट रोकने में यह पैसा लगाया है। पर रिजर्व बैंक की भी अपनी सीमा है और जोर जबरदस्ती से रेट थामना बाजार में बहुत लम्बे समय तक कारगर नहीं हो सकता।

वित्त मंत्री ने भी देसी तेल कम्पनियों के बाहर तेल बेचने पर (हालांकि यह पुराने करार का उल्लंघन है) पर ‘विंडफाल टैक्स’ और सोने के आयात को महंगा करके अपनी तरफ से रुपए को मजबूती देने की कोशिश की है लेकिन इतने से विदेश व्यापार का घाटा पटेगा या मैनेज होने लायक रहेगा यह कहना मुश्किल है।

यह बात तब और सही लगती है जब हम देखते हैं कि जून में समाप्त तिमाही में हमारा विदेश व्यापार का घाटा रिकार्ड बना चुका है और आगे चीजें और बिगडती लग रही हैं। अमेरिका समेत सारे युरोप में संकट दिखने से हमारे सामान की मांग बढने की गुंजाइश नहीं दिखती और इधर आयात बेहिसाब बढता जा रहा है। सिर्फ पहली तिमाही का विदेश व्यापार का घाटा 70.25 अरब डॉलर का हो गया है।

कहना न होगा कि इसमें पेट्रोलियम आयात का बिल सबसे बडा है जबकि हम रूस से सस्ता तेल लेने का नाटक भी चलाते रहे हैं। सिर्फ तेल का बिल हमारे जीडीपी के पांच फीसदी तक आ चुका है और वह भी अस्सी डॉलर प्रति बैरल के हिसाब पर। इस साल तो कीमतें कभी भी इस स्तर से नीचे नहीं आई हैं सो इस बार आयात का बिल और बडा होगा।

 - Satya Hindi

सोने का आयात भी बेहिसाब बढा है जिसके चलते वित्त मंत्री ने कर बढाए हैं। इसी तरह कोयले का आयात भी बहुत बढा है। अब मुश्किल यह है कि हम ऊर्जा के मामले में बहुत सख्ती करेंगे तो उसका असर पूरी अर्थव्यवस्था और सारे उत्पादन पर पडेगा। पर असली समस्या तैयार सामान, खासकर सिले कपडों से लेकर जेम-ज्वेलरी तक, का निर्यात कम होने से है। अमेरिका और युरोपीय संघ, दोनों जगह से मांग गिरी है। एक कारण यह भी है कि दूसरे देश हमसे सस्ता माल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेच रहे हैं। बांग्लादेश और वियतनाम जैसे मुल्कों में सस्ते श्रम के चलते सस्ता उत्पादन होता है। उधर, चीनी सामान भारतीय बाजार में अटे पड़े हैं।

जानकार, इससे भी ज्यादा दो चीजों को लेकर डरे हैं। अभी भी फ़ेडरल रिजर्व अपने क्या विदेशी मुद्रा में पैसे खर्च होते हैं यहां बैंक रेट बढाने वाला है जिसकी आशंका से पहले ही दुनिया भर के बाजारों के प्राण सूखे हुए हैं। हमारे यहां से भी बडी मात्रा में विदेशी पूंजी बाहर वापस हुई है-शेयर बाजारों की गिरावट उसका प्रमाण है। अर्थव्यवस्था में पूंजी का अभाव असली चोट है जो सेंसेक्स गिरने-चढने की तरह तत्काल नहीं दिखती। दूसरी चीज है विदेशी कर्ज की अदायगी का समय पास आना।

यह अनुमान है कि देश पर 621 अरब डॉलर का जो विदेशी कर्ज है उसमें से 267 अरब डॉलर की रकम अब अगले महीने में मैच्योर हो जाएगी अर्थात उसकी अदायगी करनी होगी। अगर 267 अरब डॉलर की जरूरत होगी या इतनी रकम बाहर जाएगी तो हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में जबरदस्त कमी हो सकती है (लगभग 43-44 फीसदी) और तब बाजार में डॉलर की मांग भी ज्यादा रहेगी।

अर्थव्यवस्था में जान आने से ही इस मुसीबत से छुटकारा मिल सकता है। निर्यात की कमाई बढ़ेगी तो संकट कम होगा। अभी जब दुनिया भर में गेहूं और अनाज की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है और हमारा गेहूं पहली बार बाहर लाभकारी दाम पर बिकने की स्थिति में आया है तब सरकार ने निर्यात पर रोक लगा दी। सरकारी गोदामों में छह करोड टन गेहूं का भंडार है लेकिन उसने अच्छी फसल देखने के बाद भी यह कदम उठाया। कई और कृषि उत्पादों के निर्यात पर रोक लगी है।

इस बार मुनाफे की आस में खुली मंडियों में काफी गेहूं निजी कंपनियों ने खरीदा है। लिहाज़ा इस बार सरकारी खरीद केन्द्रों पर कम आया है। सिर्फ मेक इन इंडिया का नारा लगा है काम चीन से माल मंगाने या उससे पुर्जे मंगाकर जोडने का हुआ है। इन जुमलों का हिसाब भी होना चाहिए और चालीस रुपए के डॉलर का भी।

भारतीय रुपये में गिरावट जारी, डॉलर की कीमत पहली बार 81 रुपये से पार

भारतीय रुपये में गिरावट जारी, डॉलर की कीमत पहली बार 81 रुपये से पार

डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये में गिरावट जारी है। शुक्रवार को गिरावट के साथ इतिहास में पहली बार एक डॉलर की कीमत 81 रुपये से ज्यादा पहुंच गई। गुरुवार को सबसे कमजोर स्तर पर बंद होने के बाद शुक्रवार को शुरुआती कारोबार में रुपया 39 पैसे टूटा। इससे डॉलर की कीमत 81.18 रुपये हो गई। गुरुवार को रुपये की हालत देखते हुए ये कयास लगाए जा रहे थे कि शुक्रवार को इसमें और गिरावट आ सकती है।

जानकारों का कहना है कि फेडरल रिजर्व की तरफ से ब्याज दरों में बढ़ोतरी और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की तरफ से उचित हस्तक्षेप की कमी के चलते रुपये में गिरावट देखी जा रही है। कुछ समय तक बेहतर प्रदर्शन के बाद गुरुवार को एशियाई मुद्रा में रुपये सबसे ज्यादा गिरावट दर्ज करने वाली मुद्रा रही। शुक्रवार को भारतीय मुद्रा के साथ-साथ ऑस्ट्रेलियाई मुद्रा और न्यूजीलैंड डॉलर में गिरावट देखी जा रही है।

विदेशी मुद्रा कारोबारियों का कहना है कि फेडरल रिजर्व की तरफ से दरें बढ़ने और यूक्रेन में जारी युद्ध के चलते निवेशक जोखिम नहीं उठा रहे हैं। दूसरी तरफ अमेरिकी मुद्रा की मजबूती, शेयर बाजार में गिरावट और कच्चे तेल के दाम भी रुपये की कीमत पर असर डाल रहे हैं। कई जानकार मान रहे हैं कि घरेलू अर्थव्यवस्था में मजबूती आने के बाद भी रुपये में गिरावट का दौर जारी रह सकता है।

भारतीय रुपया आज के शुरुआती कारोबार में 81.03 प्रति डॉलर पर खुला था और इसके बाद यह इतिहास में अपने सबसे कमजोर स्तर पर पहुंच गया। गुरुवार को यह 80.87 प्रति डॉलर पर बंद हुआ था। इस हिसाब में रुपये में 0.35 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई। पिछले आठ सत्रों में से सात में रुपये में कमजोरी आई है। वहीं इस साल की बात करें तो भारतीय मुद्रा 8.48 प्रतिशत कमजोर हो चुकी है।

रुपये के कमजोर होने का मतलब है कि अब भारत को विदेश से पहले जितना माल खरीदने पर अधिक पैसा खर्च करना पड़ेगा। आयातित सामान के महंगा होने का सीधा असर लोगों की जेब पर भी पड़ेगा। महंगाई बढ़ने पर रेपो रेट में भी इजाफा होगा और बैंकों से मिलने वाला ऋण महंगा हो जाएगा। इसके अलावा रुपये के गिरने पर इक्विटी बाजारों में तेज गिरावट होती है और शेयर और इक्विटी म्यूचुअल फंड निवेश में कमी आती है।

क्या है श्रीलंका का आर्थिक संकट

दि संडे टाइम्स ने 8 जनवरी को अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि गोल्ड रिज़र्व का 54.1 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मुद्रा भंडार को मज़बूती देने के लिए इस्तेमाल हो चुका है। ऊपर किया गया विश्लेषण बताता है कि श्रीलंका का संकट वहां के नेता लोगों के भ्रष्टाचार, आर्थिक कुप्रबंधन, चीन की कुटिल चाल और अलोकतांत्रिक सरकार का नतीजा है…

भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका अपने इतिहास के सबसे भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वहां पेट्रोल, डीजल जैसा बेहद अहम ईंधन खत्म हो चुका है। बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। जरूरी चीजों के आयात के लिए सरकार के पास पैसे नहीं बचे हैं। इससे लगभग सभी चीजों के दाम लगातार चढ़ते जा रहे हैं। कई लोगों की तो पहुंच से बाहर ही हो चुके हैं। धीरे-धीरे सब ठप हो रहा है। यहां का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। इसी के साथ कर्ज के बोझ से तले इस देश के दिवालिया घोषित होने का खतरा भी पैदा हो गया है। आखिर ऐसा क्या हुआ रावण के देश में, जो श्रीलंका ऐसी मुसीबत में फंसा? जानकारों के मुताबिक श्रीलंका के आर्थिक संकट में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की बेहद अहम भूमिका मानी जा रही है। श्रीलंका ने 1978 में राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनाई। तभी से यह विवादों में है। खास तौर पर सत्ताधारी दल द्वारा सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग और मनमाने फैसलों के कारण।

राष्ट्रपति के शासन तंत्र पर नियंत्रण का कोई इंतजाम नहीं है। जो था, उसे भी राष्ट्रपति को कानून से ऊपर मानने वाले कानूनी प्रावधानों के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया। बताया जाता है कि श्रीलंका सरकार ने रेडियो लाइसेंसिंग में भी भारी हेराफेरी की है। रेडियो और टेलीविजन प्रसारण के काम आने वाली फ्रिक्वेंसी के लाइसेंस के लिए आम तौर पर सभी देश ऊंची कीमत वसूलते हैं। इससे सरकारी खजाना भरते हैं। साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि ये लाइसेंस लेने वाले राष्ट्रीय नीति के दायरे में ही अपने चैनलों का संचालन करेंगे। लेकिन श्रीलंका में इस काम में जबरदस्त धांधली हुई है। जैसे चंद्रिका कुमार तुंगा जब राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त हुईं तो एक लाइसेंस उन्हें ही आवंटित हो गया। उन्होंने उसे एक कंपनी को महज 50 लाख डॉलर में क्या विदेशी मुद्रा में पैसे खर्च होते हैं बेच दिया। इसी तरह 2005 में महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद 3 लाइसेंस जारी किए। इनमें एक बौद्ध भिक्षु को मिला और बाकी 2 राजनीतिक दलों को। इन्होंने राजपक्षे की जीत सुनिश्चित करने में भूमिका निभाई थी। फिर आगे बौद्ध भिक्षु ने अपना लाइसेंस किसी कंपनी को 4 करोड़ डॉलर में बेच दिया। इन लाइसेंसों का पैसा भी सरकारी कोष के बजाय निजी खातों में गया।

श्रीलंका की संसद के सदस्य राष्ट्रपति और उनकी नीतियों का आम तौर पर किसी तरह से प्रतिरोध नहीं करते। बताया जाता है कि बदले में उन्हें राष्ट्रपति शासन से शराब, रेत, खनन आदि के लाइसेंस वगैरह मामूली दामों पर उपलब्ध कराए जाते हैं। इन लाइसेंसों के जरिए या तो सांसद खुद कारोबारी बन बैठते हैं या फिर उन्हें ऊंचे दामों पर किसी कंपनी को बेचकर अपने बैंक खातों में बड़ी रकम रकम जमा करते हैं। इस तरह दोतरफा भ्रष्टाचार जारी रहता है। श्रीलंका में सरकारी तामझाम पर भारी रकम खर्च होती है। मतलब राष्ट्रपति से लेकर मंत्रियों, नेताओं, अफसरों की गाडि़यां, बंगले, फोन, सुरक्षा आदि पर इतनी रकम खर्च होती है जितनी संभवतः ब्रिटेन जैसे विकसित देश में भी खर्च नहीं की जाती। इससे देश के सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता रहा है। लेकिन राष्ट्रपति शासन ने इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। ‘श्रीलंका गार्जियन’ अखबार के मुताबिक देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद ली जा रही है। आर्थिक सहयोग पैकेज लाने की कोशिश की जा रही है। भारत और चीन से भी मदद मांगी जा रही है। जब तक श्रीलंका की सरकार आर्थिक नीतियों और तंत्र को कसती नहीं, दुरुस्त नहीं करती, इस पर संशय बना रहेगा कि श्रीलंका आर्थिक संकट से बाहर आ पाएगा या नहीं। श्रीलंका की करेंसी डॉलर की तुलना में करीब आधी रह गई है। दूध, अंडा, चावल, डीजल और पेट्रोल, मिर्च जैसी तमाम चीजों के दाम कई गुना बढ़ गए हैं।

ईंधन की किल्लत की वजह से बसें बंद कर दी गई हैं। गैस नहीं मिल रही, इसलिए लोग खाना भी नहीं बना पा रहे। श्रीलंका में ईंधन की कमी की वजह से ज्यादातर बसें बंद कर दी गई हैं। लगभग ढाई करोड़ लोगों के घरों में बिजली आपूर्ति ठप हो गई है। कारखाने और पॉवर प्लांट बंद हो चुके हैं। यहां लोगों का कहना है कि देश में 1948 के बाद से यानी 74 साल के बाद सबसे बुरे हालात हैं। श्रीलंका की जनता इसके लिए यहां की सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है। मीडिया रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि श्रीलंका के पास देश चलाने के लिए पैसे भी नहीं हैं। कोरोना महामारी, ईंधन की कमी और आसमान छूती महंगाई की वजह से देश संकट से जूझ रहा है। सरकारी खजाना खाली हो चुका है। श्रीलंका को आने वाले कुछ महीनों में घरेलू और विदेशी कर्ज चुकाने के लिए लगभग साढ़े सात अरब डॉलर की जरूरत है। श्रीलंका की जनता का इसके बारे में क्या मानना है, यह जानना जरूरी है। ऐसा कहा जा रहा है कि जनता का इस तरह प्रदर्शन करना, सड़कों पर उतरना न्यायसंगत है क्योंकि उन पर इस आर्थिक संकट से आने वाला बोझ और कठिनाइयां बेहद असहनीय होती जा रही हैं और इन समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान नज़र नहीं आ रहा है।

श्रीलंका की सरकार के उस दावे को ख़ारिज किया जा रहा है जिसमें कहा गया कि ये विरोध प्रदर्शन राजनीतिक पार्टियों से प्रेरित हैं। ऐसा लगता है कि ये प्रदर्शन लोगों का ही है, न कि पार्टियों की राजनीति से प्रेरित है। काफी हद तक प्रदर्शन कर रहे लोगों के बर्ताव आम जनता के बर्ताव ही हैं जो सरकार से मिली नाउम्मीदी और सरकार के अपने कामों में विफल होने के फलस्वरूप आ रहे हैं। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि वो सभी लोग जो अब तक सत्ता में रहे या विपक्ष में रहे, उन्होंने देश के लोगों को विफल किया है, वे लोग अपने कार्यकाल में जनता के प्रति कर्त्तव्यों के निर्वहन में विफल हुए हैं, उन्हें अपना पद छोड़ देना चाहिए। ऐसे में वर्तमान समय में लोगों के गुस्से का समाधान वे लोग नहीं दे सकते जो संसद में बैठे हैं क्योंकि जनता का गुस्सा उन्हीं लोगों से है। श्रीलंका ने वैश्विक वित्तीय संस्थानों के बजाय अपने पड़ोसियों से सहायता जुटाना बेहतर समझा है। श्रीलंका की सरकार बीते कुछ महीनों में महंगाई पर लगाम लगाने में असर्मथ रही है। बढ़ते बजट घाटे के बीच श्रीलंका ने कम ब्याज दर बनाए रखने की कोशिश में ढेर सारी मुद्रा छापी है। ये सब उस दौरान हो रहा था जब देश में विदेशी मुद्रा के तेजी से घटने की ख़बरें आ रही थीं। यह ठीक आर्थिक कदम न था। कमजोर विदेशी मुद्रा भंडार के कारण कुछ चीजों का आयात भी बंद कर दिया गया था।

एक श्रीलंकाई अख़बार के मुताबिक देश के प्रमुख विपक्षी गठबंधन समाजी जन बलावेगाया ने पिछले साल 29 नवंबर को कहा था कि श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार इस वक्त अपने ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर यानी 1.2 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया है। इसी बीच पता चला है कि श्रीलंका के केंद्रीय बैंक सेंट्रल बैंक ऑफ श्रीलंका ने अपने पास रखे आधे से अधिक गोल्ड रिज़र्व को बेच दिया है। दि संडे टाइम्स ने 8 जनवरी को अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि गोल्ड रिज़र्व का 54.1 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मुद्रा भंडार को मज़बूती देने के लिए इस्तेमाल हो चुका है। ऊपर किया गया विश्लेषण बताता है कि श्रीलंका का वर्तमान संकट वहां के नेता लोगों के भ्रष्टाचार, आर्थिक कुप्रबंधन, चीन की कुटिल चाल और अलोकतांत्रिक सरकार का नतीजा है। आज वहां की जनता को बेकसूर होने के बावजूद दुःख सहना पड़ रहा है। वहां की जनता हमें संकटमोचक के रूप में देख रही है। वैसे भी भारत का श्रीलंका से ऐतिहासिक और आध्यात्मिक रूप से पुराना और करीबी रिश्ता है। ऐसे में श्री राम का देश भारत रावण के देश श्रीलंका के इस संकट में वहां की जनता को बिना देरी से त्राहि से मुक्ति दिलाए तो ठीक लगता है।

शानदार वापसी : डॉलर के मुकाबले रुपया 28 पैसे मजबूत खुला

Foreign Exchange Market में डॉलर के मुकाबले रुपया आज मजबूती के साथ खुला। आज डॉलर के मुकाबले रुपया 28 पैसे की मजबूती के साथ 80.52 रुपये के स्तर पर खुला। वहीं, शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 1.01 रुपये की मजबूती के साथ 80.80 रुपये के स्तर पर बंद हुआ। डॉलर में कारोबार काफी समझदारी से करने की जरूरत होती है, नहीं तो निवेश पर असर पड़ सकता है।

शानदार वापसी : डॉलर के मुकाबले रुपया 28 पैसे मजबूत खुला

जानिए पिछले 5 दिनों के रुपये का क्लोजिंग स्तर

-शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 1.01 रुपये की मजबूती के साथ 80.80 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
-बुधवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 37 पैसे की कमजोरी के साथ 81.81 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
-मंगलवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 48 पैसे की मजबूती के साथ 81.44 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
-सोमवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 52 पैसे की मजबूती के साथ 81.92 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।
-शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 44 पैसे की मजबूती के साथ 82.44 रुपये के स्तर पर बंद हुआ।

जानिए रुपये के कमजोर या मजबूत होने का कारण

रुपये की कीमत इसकी डॉलर के तुलना में मांग एवं आपूर्ति से तय होती है। वहीं देश के आयात एवं निर्यात का भी इस पर असर पड़ता है। हर देश अपने विदेशी मुद्रा का भंडार रखता है। इससे वह देश के आयात होने वाले सामानों का भुगतान करता है। हर हफ्ते रिजर्व बैंक इससे जुड़े आंकड़े जारी करता है। विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति क्या है, और उस दौरान देश में डॉलर की मांग क्या है, इससे भी रुपये की मजबूती या कमजोरी तय होती है।

शानदार वापसी : डॉलर के मुकाबले रुपया 28 पैसे मजबूत खुला

महंगे डॉलर का जानिए आप पर असर

देश में अपनी जरूरत का करीब 80 फीसदी क्रूड ऑयल का आयात करना पड़ता है। इसमें भारत को काफी ज्यादा डालर खर्च करना पड़ता है। यह देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बनाता है, जिसका असर रुपये की कीमत पर पड़ता है। अगर डॉलर महंगा होगा, तो हमें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है, और अगर डॉलर सस्ता हो तो थोड़ी राहत मिल जाती है। रोज यह उठा पटक डॉलर के मुकाबले रुपये की स्थिति को बदलती रहती है।

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