मूल्य निर्धारण

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नई दवाओं के लिए मूल्य निर्धारण प्रक्रिया बदलेगी सरकार, जल्द बाजार में आ सकेंगी दवाएं
केंद्र सरकार गरीबों और जरूरतमंद लोगों तक आवश्यक दवाइयों की पहुंच और उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ दवा उद्योग के विकास के लिए नवाचार और स्पर्धा के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से दवा मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 (डीपीसीओ) की समीक्षा कर रही है.
अशोक सिंघल
- नई दिल्ली,
- 21 अक्टूबर 2017,
- (अपडेटेड 21 अक्टूबर 2017, 6:15 AM IST)
केंद्र सरकार नई दवाओं के मूल्य निर्धारण के तरीके में बदलाव पर विचार कर रही है. सरकार का कहना है कि वह मौजूदा मूल्य निर्धारण के तरीके को समाप्त करने के लिए दवा उद्योगों के साथ मिलकर रास्ता निकाल रही है. इसके तहत दवा मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 (डीपीसीओ) में परिभाषित 'नई दवा' की कीमत तय करना शामिल है.
वर्तमान मूल्य निर्धारण के तरीके की वजह से नई दवा को बाजार में उतारने में काफी देरी होती है. रसायन और उर्वरक मंत्रालय मामले के हितधारकों के साथ लगातार बातचीत करता रहा है और इन प्रस्तावों को अंतिम रूप देने से पहले सभी संबंधित वर्गों के साथ आगे सलाह की जाएगी.
केंद्र सरकार गरीबों और जरूरतमंद लोगों तक आवश्यक दवाइयों की पहुंच और उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ दवा उद्योग के विकास के लिए नवाचार और स्पर्धा के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से दवा मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 (डीपीसीओ) की समीक्षा कर रही है. मोदी सरकार इन विषयों पर मूल्य निर्धारण दवा उद्योग और अन्य हितधारकों के साथ बातचीत कर रही है.
मंत्रालय का कहना है कि मूल्य नियंत्रण को कठोर बनाने संबंधी धारणा भ्रामक और अनुचित है. डीपीसीओ के प्रावधानों के तहत केवल उन दवाओं की कीमतें तय हैं, जो आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिल हैं. इन दवाओं की संख्या बाजार में उपलब्ध छह हजार दवाओं में से लगभग 850 है. मूल्य आधार पर इनकी संख्या कुल दवा बाजार का लगभग 17 प्रतिशत है. एक विशेषज्ञ समिति आवश्यक दवाओं की सूची का लगातार आकलन करती है.
इन पर मंत्रालय कर रहा विचार
1. गैर अनुसूचित घोषित दवाइयों को आगे के वर्ष के लिए उनके अधिकतम मूल्य तय किए बिना गैर अनुसूचित दवा समझना.
2. आवश्यक दवाइयों की राष्ट्रीय सूची के संशोधन के आधार पर सूची में जोड़-घटाव को शामिल करते हुए अनुसूचित दवाओं की सूची संशोधित करना, ताकि केवल आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल नई दवाओं के मूल्य एमपीपीए द्वारा निर्धारित हों.
3. अधिकतम मूल्य से भी ज्यादा में बेची जाने वाली दवाओं को सीमित करना.
4. नकारात्मक थोक मूल्य सूचकांक के मामले में अनुसूचित दवाइयों की मूल्य सीमा में परिवर्तन का अधिकार एनपीपीए को देना.
5. अन्य विषयों में स्वास्थ्य संस्थानों को सीधे सप्लाई की जा रही अनुसूचित दवाओं के मूल्य निर्धारण के लिए संस्थागत मूल्य डाटा संबंधी प्रावधान शामिल हैं. हालांकि अनुसूचित दवाओं के लिए अधिकतम सीमा तय करने संबंधी तौर-तरीके इस समय विचाराधीन नहीं हैं.
दवा मूल्य निर्धारण: पेशेंट ने जीती पेटेंट की जंग
सुप्रीम कोर्ट के निर्णायक फैसले से जीवन रक्षक पेटेंट दवाएं आसानी से और सस्ते दामों में उपलब्ध होंगी. लेकिन इसके साथ ही निवेश का माहौल बिगड़ सकता है और कानूनी लड़ाई तेज हो सकती है जिससे नई दवाओं का विकास प्रभावित हो सकता है.
aajtak.in
- नई दिल्ली,
- 18 अप्रैल 2013,
- (अपडेटेड 20 अप्रैल 2013, 3:40 PM IST)
1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और रंजना देसाई की खंडपीठ ने स्विट्जरलैंड की दिग्गज दवा कंपनी नोवार्टिस एजी की सात साल पुरानी उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उसने रक्त कैंसर के उपचार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा ग्लिवेक के पेटेंट को सुरक्षित करने को कहा था.
अदालत ने भारतीय पेटेंट कानून, 1970 का हवाला देते हुए कहा कि ग्लिवेक दवा पुरानी हो चुकी है और इसके नए स्वरूप को आविष्कार का नतीजा नहीं माना जा सकता. इससे पहले 4 मार्च को बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आइपीएबी) ने भारत सरकार के उस निर्णय का समर्थन किया था जिसमें सरकार ने नैट्को फार्मा को देश में पहली बार अनिवार्य लाइसेंस (सीएल) के तहत कैंसर के इलाज की दवा नेक्सवार के सस्ते विकल्प बनाने की अनुमति दी थी. नेक्सवार जर्मन मल्टीनेशनल कंनी बेयर का उत्पाद है.
लेकिन यह मामला अभी पूरी तरह सुलझ नहीं पाया है. बेयर अपने बौद्धिक संपदा अधिकार की रक्षा के लिए आइपीएबी के आदेश को बंबई हाइकोर्ट में चुनौती देने की तैयारी में है. कंपनी का विरोध इस बात को लेकर है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतरराष्ट्रीय पेटेंट सिस्टम को कमजोर बनाकर शोध कार्यों के लिए खतरा पैदा करता है.
नतीजतन, पेटेंट विवाद से जुड़े हुए कई और मामलों पर कानूनी लड़ाई तेज होगी. इस विवाद के अलावा अमेरिकी दवा कंपनी फाइजर और सिप्ला के बीच विवाद चल रहा है, जिसमें फाइजर ने भारत में कैंसररोधी दवा सुटेंट बनाने के मुद्दे पर सिप्ला पर कथित रूप से अपने पेटेंट के उल्लंघन का आरोप लगाया है. नेक्सवार मुद्दे पर बेयर और नैट्को पहले ही आमने-सामने हैं. इसके अलावा, ब्रिस्टल-मायर्स स्क्विब एक और कैंसररोधी दवा साइसेल के पेटेंट को लेकर नैट्को के खिलाफ है. सिप्ला के अध्यक्ष वाइ.के. हमीद कहते हैं, ''यह फैसला महत्वपूर्ण दवाओं को रोगियों की पहुंच से दूर करने के लिए किए जाने वाले पेटेंट इस्तेमाल को रोक सकेगा.”
लेकिन इस फैसले के बाद भारत की निवेश के लिए सबसे अनुकूल जगह माने जाने वाली छवि को धक्का लगेगा. आविष्कारक कंपनियां ऐसे देश में निवेश को सुरक्षित नहीं समझेंगी जहां गहन शोध कार्य के बाद तैयार दवाओं पर अनिवार्य लाइसेंस जारी हो जाने का खतरा मंडराएगा. बेयर का कहना है कि नेक्सवार जैसी नई दवा बनाने के लिए शोध पर 11,775 करोड़ रु. का खर्च आता है.
4 मार्च को छह घंटे तक चली लंबी बैठक में आइपीएबी की अध्यक्ष जस्टिस प्रभा श्रीदेवन ने कहा था, ''कोई अदालत किसी कंपनी के पक्ष या खिलाफ फैसला नहीं करती. वह सिर्फ जनहित के आधार पर फैसला करती है.” 110 पेज का सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दवाओं के पेटेंट संरक्षण पर देश की अलग-अलग अदालतों में चल रही पुरानी कानूनी लड़ाइयों को प्रभावित करेगा. कुछ नए मामले भी इससे अछूते नहीं रहेंगे.
सिप्ला, हेटेरो, रैनबैक्सी और नैट्को जैसे भारतीय दवा निर्माताओं से नोवार्टिस की कानूनी लड़ाई साल 2005 में उस वक्त शुरू हुई जब मुंबई में कैंसर के रोगियों की मदद करने वाली एक संस्था कैंसर पेशेंट एड एसोसिएशन (सीपीएए) ने स्विस कंपनी के ग्लिवेक को पेटेंट कराने वाले आवेदन को चुनौती दी. इस संस्था ने आरोप लगाया कि स्विस कंपनी पहले से मौजूद एक दवा की संरचना में फेरबदल कर उसे पेटेंट कराने की कोशिश कर रही है जिसकी अनुमति भारतीय पेटेंट कानून नहीं देता है.
भारतीय पेटेंट कानून, 1970 के सेक्शन 3(डी) के तहत किसी पहले से ज्ञात पदार्थ की नई संरचनाओं पर पेटेंट नहीं दिया जा सकता. घरेलू दवा कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले इंडियन फार्मास्युटिकल अलाएंस के महासचिव डी.जी. शाह कहते हैं, ''इस सेक्शन का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि बड़ी दवा कंपनियों का जीवन रक्षक दवाओं के पेटेंट पर एकाधिकार कायम न हो. साथ ही जब तक जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता में बदलाव मूल्य निर्धारण की संभावना न हो, उनको बनाने में समय नहीं खर्च किया जाए.”
विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक संपदा कानून के व्यापार संबंधी मामलों (ट्रिप्स) पर भारत ने अपने हस्ताक्षर किए हैं. इसके मुताबिक, पेटेंट किसी कंपनी को 20 वर्ष तक निर्माण और वितरण का अधिकार देता है. इसका अधिकार रखने वाली कंपनी बगैर किसी प्रतियोगिता के दवा के दाम इतने बढ़ा सकती है कि वह रोगियों की पहुंच से दूर हो जाए. 20 साल के बाद अन्य कंपनियों को इस बात की इजाजत दी जाती है कि वह दवा का आविष्कार करने वाली कंपनी को कोई हर्जाना दिए बगैर दवा के सस्ते जेनेरिक नमूने तैयार कर सकती हैं. दुनिया की बड़ी कंपनियों को पेटेंटों और उसके जरिए मोटी कमाई जारी रखने से रोकने के लिए भारत में हुए संशोधन पर आपत्ति है.
बेयर ने सरकार के उस फैसले को चुनौती दी थी जिसके तहत नैट्को को कैंसर की दवा 8,800 रु. प्रति महीने पर तैयार करने को कहा गया (बेयर की इसी दवा की कीमत 2.80 लाख रु. है). नैट्को को यह भी कहा गया कि वह कुल बिक्री का छह प्रतिशत रॉयल्टी के रूप में बेयर को अदा करे.
जस्टिस श्रीदेवन कहते हैं कि पिछले तीन वर्षों में बेयर ने अपनी बाजार नीति में संशोधन करने के लिए और दवा के दाम कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए. तब आइपीएबी ने नैट्को को रॉयल्टी बढ़ाकर सात प्रतिशत करने को कहा. नोवार्टिस समेत सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चिंता की बात यह है कि भारत अक्सर बौद्धिक संपदा अधिकारों को मान्यता नहीं देता. नोवार्टिस के उपाध्यक्ष और एमडी रंजीत साहनी कहते हैं, ''हमने इस मामले को इसलिए सामने लाया क्योंकि हम मानते हैं कि पेटेंट संरक्षण आविष्कार और दवा क्षेत्र में उन्नति को बढ़ावा देता है. यह फैसला सभी मरीजों के लिए झ्टका है और दवा क्षेत्र की प्रगति में बाधा.”
आइपीएबी द्वारा बनाए गए नियम को ध्यान में रखते हुए सरकार और अनिवार्य लाइसेंस भी प्रदान करेगी. उद्योग नीति और प्रोत्साहन विभाग पहले ही तीन और कैंसररोधी दवाइयों को अनिवार्य लाइसेंस देने पर विचार कर रहा है. स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने कहा है कि भारतीय उदाहरण, पेटेंट तंत्र के दुरुपयोग के मामलों को रोकने में मददगार साबित होगा. लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि अनिवार्य लाइसेंस सबसे अच्छा समाधान नहीं हो सकता. वे कहते हैं कि नए नियम भारतीय दवा कंपनियों और 72,000 करोड़ रु. के भारतीय दवा बाजार में काम करने वाली उनकी ग्लोबल साझेदार कंपनियों के बीच तनाव पैदा कर सकते हैं.
सरकार को इस तनाव को दूर करने के लिए ऐसी मूल्य प्रणाली विकसित करनी होगी जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाइयां भारतीय कंपनियों की दवाइयों के साथ अलग-अलग कीमतों पर बिक्री के लिए उपलब्ध हो सकें. इस विवाद को सुलझाने के लिए बनाई गई समिति के अध्यक्ष और दवा विभाग के निदेशक बी.के. सिंह कहते हैं कि सरकार को पेटेंट दवाओं की कीमत अन्य देशों में उनकी कीमत के आधार पर तय करनी चाहिए.
साहनी कहते हैं, ''इसका समाधान या तो एक क्रॉस-सब्सिडी मॉडल बनाकर हो सकता है—जिसमें अमीर वर्ग पूरी कीमत चुकाए और गरीब व्यक्ति सब्सिडी वाली कीमत या फिर सरकार को गरीबों के लिए इन दवाओं को खरीदकर सरकारी अस्पतालों के जरिए इसकी आपूर्ति कर देनी चाहिए.” लेकिन जरूरी दवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए काम करने वाली मेडिकल एड एजेंसी मेडीसिंस सैंस फ्रंटियर्स की संचालक लीना मेंघानी कहती हैं, ''इस तरह की नीति सरकार को अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने में बाधा पहुंचाएगी. इससे कम कीमत की दवाओं के आने में देरी होगी. अगर इसे एक बार शुरू कर दिया तो कंपनियां इसका इस्तेमाल अनिवार्य लाइसेंस की जरूरत के खिलाफ करेंगी.”
व्यय विभाग DEPARTMENT OF Expenditure
मुख्य सलाहकार लागत का कार्यालय व्यय विभाग, वित्त मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत एक प्रभाग है। यह कार्यालय लागत लेखा मामलों पर मंत्रालयों तथा सरकारी उपक्रमों को सलाह देता है तथा उनकी ओर से लागत जांच कार्य करता है। यह एक पेशेवर निकाय है जिसके कर्मचारी लागत/चार्टर्ड लेखाकार होते हैं।
मुख्य सलाहकार लागत का कार्यालय, लागत निर्धारण तथा मूल्य निर्धारण संबंधी मामलों, उचित मूल्यों के निर्धारण के लिए अध्ययनों, उपभोक्ता प्रभारों के संबंध में अध्ययनों, परियोजनाओं के लागत-लाभ विश्लेषण, लागत कटौती के संबंध में अध्ययनों, लागत दक्षता, पूंजी-गहन परियोजनाओं के मूल्यांकन, लाभप्रदता विश्लेषण तथा भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों के लिए लागत एवं वाणिज्यिक वित्तीय लेखांकन से संबंधित आधुनिक प्रबंधन उपकरणों के अनुप्रयोग के मामले देखता है।
इसकी स्थापना, उत्पादन लागत सत्यापित करने के लिए और निर्दिष्ट मामलों के संबंध में रक्षा खरीद सहित सरकारी विभागों के लिए उचित विक्रय मूल्य निर्धारित करने के लिए केंद्र सरकार की एक स्वतंत्र एजेंसी के रूप में की गई थी। इस कार्यालय की भूमिका का और विस्तार किया गया तथा प्रशासित मूल्य व्यवस्था (एपीएम) के अंतर्गत अनिवार्य वस्तु अधिनियम के तहत पेट्रोलियम, इस्पात, कोयला, सीमेंट आदि जैसे अनेक उत्पादों का मूल्य निर्धारण भी शामिल किया गया। चूंकि मंत्रालयों में लागत/मूल्य निर्धारण का काम काफी बढ़ गया है, इसलिए अन्य कई मंत्रालयों/ विभागों ने ऐसे कार्यों, जिनमें लागत/वाणिज्यिक लेखा मामलों में विशेषज्ञता की जरूरत होती है, इस सेवा के अधिकारियों की तैनाती कराकर अपनी इन-हाउस विशेषज्ञता हासिल कर ली है। उदारीकरण के बाद के इस दौर में यह कार्यालय, लागत-मूल्य अध्ययनों के परंपरागत क्षेत्रों के अलावा सरकार की उदारीकरण की नीति के साथ-साथ संकालन में अध्ययन कार्य प्राप्त कर रहा है तथा अध्ययन कर रहा है।
मुख्य सलाहकार लागत का कार्यालय, भारतीय लागत लेखा सेवा (आईसीओएएस) का संवर्ग नियंत्रक कार्यालय भी है तथा विभिन्न प्रतिभागी संगठनों में कार्यरत आईसीओएएस अधिकारियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन देने के अलावा यह कार्यालय, अधिकारियों के ज्ञान और कौशल में लगातार वृद्धि करने के लिए उनकी प्रशिक्षण संबंधी जरूरतें भी देखता है।
मुख्य सलाहकार लागत के कार्यालय के व्यावसायिक कार्यों के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:-
i. विभिन्न सेवाओं/उत्पादों हेतु उचित मूल्यों के निर्धारण में मूल्य/लागत से संबंधित जटिल मामलों को सुलझाने में केन्द्र सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों/संगठनों की सहायता करना और लागत मामलों में विभिन्न मंत्रालयों/विभागों को परामर्श देना।
ii. सरकारी विभागों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों तथा आपूर्तिकर्ताओं के बीच क्रय करारों से उत्पन्न दावों की जांच/सत्यापन।
iii. सरकार को आपूर्त उत्पादों और सेवाओं का मूल्य निर्धारण ताकि सरकारी विभाग आपूर्तिकर्ता संगठनों के साथ मूल्यों पर समझौता वार्ता कर सकें।
iv. लागत/उचित मूल्यों के निर्धारण के लिए अध्ययन करना तथा उत्पादों और सेवाओं के लिए उचित मूल्यों/दरों की सिफारिशें करना तथा प्रभारित मूल्यों, शुल्क संरचना आदि का औचित्य भी मूल्य निर्धारण निर्धारित करना।
v. अधिगृहीत उद्योग की परिसंपत्तियों एवं देयताओं तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों का मूल्यांकन।
vi. लागत/वित्तीय तथा मूल्य निर्धारण से संबंधित मामलों में सरकार/विभिन्न विभागों द्वारा गठित समितियों के अध्यक्ष/सदस्यों के रूप में कार्य करना।
vii. औद्योगिक उपक्रमों की लागत एवं कार्य निष्पादन लेखापरीक्षा करना।
viii. बाजार हस्तक्षेप स्कीमों के तहत सब्सिडी का निर्धारण एवं दावों का सत्यापन तथा राज्य और केंद्र सरकार द्वारा घाटे के सहभाजन हेतु मूल्य समर्थन स्कीम।
ix. विभागीय उपक्रमों/स्वायत्त निकायों के लिए लागत लेखांकन प्रणाली विकसित करना।
x. प्रमुख परियोजनाओं के समय और लागत में वृद्धि का अध्ययन करना।